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सुरसा की खांसी / अमरेन्द्र
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अबकी खूब दिवाली बीती, खूब धमाका फूटा
दिल्ली का तो दिल दहला ही, गाँव धुआँ का घर था
किसका दम कब घुट जायेगा, नहीं किसी को डर था
साँढ़ शोर का उछल रहा था, तोड़ लौह का खूंटा।
काली-सी विकराल दिवाली की थी ऐसी रात
टकराते थे मुण्ड गले के, खटखट-फटफट ठाँय
पिद्दी तक को करते देखा उँगली पर ही ठांय
सिकुड़ी सहमी एक रात पर एक अरब का घात।
ध्वनि विस्तारक मंदिर के मोर्चे पर गरजा खूब
माथा ठोक गया घुसपैठी आतंकी आतंकित
उपमा, रूपक, बिम्ब सभी ही सम्मुख रहे पराजित
अरे बाप रे, ग्रामोफोनो ॅ में छेलै के हूब ।
छोटू को अब नहीं चाहिए, छोटे-छोटे बम
बाबा से कहता बम ला दो, जैसा है एटम ।