भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भय / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:28, 4 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=साध...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
खेती-बारी छोड़-छाड़ कर माधो है चपरासी
कपड़ा-लत्ता बदल गया है, चेहरा खिला-खिला है
पहले तो टोला लगता था, अब तो एक जिला है
बातें उसको खाद-बीज की अब लगती हैं बासी।
कल तक अपने खेत का खाता जी भर अघा-अघा कर
अब वेतन के चक्कर में खेतों को बेच रहा है
पहले तो कुछ अहा-अहा था, अब तो हहा-हहा है
भूल गया है अब तो रखना कुछ भी बचा-बचा कर।
बड़े बड़ों के आचारों में माधो रंगा हुआ है
जीवन जो सीधे चलता था, टेढ़ा बना लिया है
हंसमुखी नौका को अब तो बेड़ा बना लिया है
रेशम के कुत्र्ते-सा वह खूँटी पर टँगा हुआ है ।
बिके खेत पर कल-पुर्जों का खड़ा हुआ एक घर है
कई खेत उस घर में होंगे इसका ही अब डर है।