भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बिहार दिवस / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:35, 4 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=साध...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
क्या बिहार का दिवस मनाएँ, जब जापान जला है
अपनी खुशी बड़ी है कैसे दुखिया के सौ दुख से
मैंने सारी कथा सुनी है सेंदाई के मुख से
पर्वत के ऊपर तो देखो कैसा शून्य-खला है ।
कहीं दिवाली के संग होली, कहीं मुहर्रम मातम
हाथ लगी है विश्वग्राम की जली हुई परिभाषा
सिन्धु के तट पर ऐसे क्यों खड़ा कुआँ है प्यासा
प्रश्न खड़ा है महाप्रलय-सा, घोर शयन में आगम।
महावीर-गौतम से पूछूँ, कितना समय लगेगा
उत्सव हो सबका ही उत्सव, दुख सबका ही दुख हो
स्वाति बूँद-सा सूखा-सूखा, कहीं-कहीं न सुख हो
कुण्डलिनी में सहस्त्रार का सरसिज सरस खिलेगा?
उत्सव हो उल्लास सृष्टि का एक-एक जन-जन का
घर के कोई कोने का क्या, खुले हुए आँगन का!