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स्वाप का मछेरा / अमरेन्द्र

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झिलमिलाओ स्वप्न में मेरी सहेली
मैं तुम्हें देखूँ, न देखे पर तुम्हें जग
चहकते हैं प्राण तन में, कुंज में खग
नींद में जागी हुई-सी हो पहेली ।

स्वप्न में ही बस गया संसार मेरा
जग लगे कागज की पुड़िया झाड़-झाँखड़
खींच कर फेंका गया इस ओर काँकड़
मीन सुख का, स्वाप का छाँके मछेरा ।

जग रगण में है पड़ा, पर मैं मगण में
देखना अब हार किसकी, जीत किसकी
जम गयी है फिर वहीं चट्टान खिसकी
नींव से ले शिखर तक गिरि हिले क्षण में ।

एक नीली झील पर तरी श्वेत कम्पित
कौन जल में, और ऊपर रूप बिम्बित ।