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कविले…. / ज्ञानुवाकर पौडेल

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विचारको खेती थालेछ कविले
अक्षरको माहुरी पालेछ कविले

छाडेर चहार्न अब मठ-मन्दिर
कस्तो यो क़दम चालेछ कविले

किनेछ फेरि अर्कों नयाँ किताब
पुरानो कोट त्यो टालेछ कविले

के सोचेर कविलाई दिएको इनाम
के सोचेर इनाम फालेछ कविले

राख्तो रै’नछ धेरै अतीत – मोह
जीर्ण परम्परा ‘नि ढालेछ कविले

उज्यालो हेर्न त्यो पुरै बस्ती
घर आफनो बालेछ कविले

बाँकी छदैं खेल्न अन्तिम दृश्य
पर्दा खसाई हालेछ कविले ।