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कुंभ-2 / विजय कुमार

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यह जो कोलाहल है

इसी में डूबी वह स्त्री

वह, जो कर्मों के फल से छुटकारा पाने

एक सौ पचास किलोमीटर दूर से चली आई बिना टिकट

उसकी फटी अंगिया से झाँकता

सूखा स्तन

जे.पी.सिंघल के किसी काम का नहीं है

उसके पाँवों की फटी बिवाइयाँ

आ नहीं पाएंगी

तुम्हारी कविता के किसी भी शब्द में

वह गिरते जल की धार को देखती

जाने किस सोच में

वह बीमार बच्चे वाली स्त्री


बाबा

तुम उसे मोक्ष दे नहीं पाओगे

तुम्हारे भीतर प्यार नहीं है

करुणा नहीं है तुम्हारे भीतर

तुम्हारे भीतर

नदी का थोड़ा-सा गीलापन नहीं है


होती जो तुम में थोड़ी-सी करुणा

थोड़ा-सा प्यार

थोड़ा-सा गीलापन

तुम उसे एक ग़ज कपड़ा देते

तुम उसे एक जोड़ी चप्पल देते

प्लास्टिक की ही सही ।

तुम देते उसे साहस थोड़ा-सा

लौटते हुए वह पूछ ही लेती कंडक्टर से

टिकट लेने पर भी

उसे बैठने की जगह क्यों नहीं मिल रही है ।