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ऊँची कुर्सी काला चोगा / रामकुमार कृषक

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ऊँची कुर्सी काला चोगा यही कचहरी है

कोलाहल दीवारों जैसा चुप्पी गहरी है


चश्मा, टाई, कोट बगल में कुछ अंधीं आँखें

जिरह करेंगी देहातों से भाषा शहरी है


कहीं-कहीं पागें-टोपी सिर नंगे कहीं-कहीं

कहीं किसी सूरज के सिर पर छाया ठहरी है


नज़र एक-सी जिनकी उनको दुनिया खुदा कहे

यहाँ खुदा ऐसे हैं जिनकी नज़र इकहरी है


मकड़ी का जाला तो मकड़ी का घर-द्वारा है

मच्छर के डर से मानुष के लिए मसहरी है


ये कैसी अनबन चंदनवन ये आखिर कैसा

किसने विष ऐसा बांटा हर फीता ज़हरी है