भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अतिथि कथा / भगवत रावत

Kavita Kosh से
Hemendrakumarrai (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 13:59, 25 मई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} * अतिथि कथा / भगवत रावत {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भगवत रावत |संग्रह=सच पूछो ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

  • अतिथि कथा / भगवत रावत

उस दिन
अचानक आ गए कल्लू के ज़जमान
ठीक ठिए पर ही जा पहुँचे जहाँ
कल्लू और रामा
करते थे सफाई
पहाड़ी के नीचे वाली
कलारी के पास

अब ऐसे में क्या करता कल्लू
उसने तुरन्त अपनी पगड़ी उतार
जजमान के पाँवों से लगाई
फिर गले मिले
दोनों समधी

देखा रामा ने दूर से
तो डलिया-झाड़ू वहीं रख पहुँची पास
घूँघट किया समधी को
पूछी बेटी-जमाई की
कुसलात

फिर कलारी के पास चट्टान पर बैठे तीनों जने
बैठ गये आसपास दोनों घर दोनों गाँव
दोनों परिवार
दोनों समधी आमने-सामने
और लाज-शरम की आड़ में
बगल तरफ रामा
कल्लू ने बीड़ी सुलगाई
दाहिनी कोहनी को हाथ लगा आदर से
जजमान को गहाई

बस, इतने में
रामा पता नहीं कहाँ गई
पता नहीं कहाँ से क्या-क्या प्रबंध किया उसने
कि थोड़ी देर बाद एक हाथ में चना-मुरमुरा-खारे की पुड़िया
दूसरे हाथ में गरम-गरम
भजिए-मुंगोड़े लिए हए आई
और फिर फैलाकर अखबार का कागज़
बिछा दिए उसने चट्टान पर जितने हो सकते थे
सारे पकवान
थोड़े ही देर में
मछली बेचने वाला भोई का लड़का
लाकर रख गया उनके सामने
तीन गिलास और गुलाब की अद्धी
जैसे सचमुच का
सम्मान

तीनों ने शिकवों-शिकायतों
रिश्तों-नातों की जन्म-जन्मांतरों की
मर्म भरी कथाओं के साथ
खाली की अद्धी गुलाब की
खूब-खूब हिले-जुले तीनों जने

तीनों ने खूब-खूब कसमें खाईं
बात-बात पर दी गई भगवान की दुहाई
ऐसी बही तिरबेनी प्रेम की
कि बिसर गईं पिछली भूलें-चूकें
बह गया सारा दुख
धुल गया सारा मैल
सारा मलाल
जनम सफल हुआ
बन गए बिगड़े काज

कल्लू ने समधी को खिलाया पान
एक साथ के लिए बँधवा दिया
फिर बस में बिठाया
बस चलने को हुई तो तीनों के गले भरे हुए थे
बस के हिलते ही जजमान ने भारी आवाज़ में कहा
हमाये मन में कौनऊँ मैल नइयाँ
आनन्द से रहियौ
आप लोगन ने खूब रिश्तेदारी निभाई

प्रिय पाठको
इस तरह उस दिन भोपाल नगर में पहाड़ी के नीचे
कलारी के पास वाली चट्टान पर हुआ शानदार स्वागत
कल्लू के जजमान का
कार्यक्रम समाप्त होते-होते शाम हो चुकी थी
अँधेरा घिर आया था
चाँद-तारे और वनस्पतियाँ साक्षी हैं
देवता यह दृश्य ईर्ष्या से देख रहे थे
और आकाश से
फूल नहीं बरसा रहे थे।