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बुढ़ापा / अमरेन्द्र
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तुलसीचौरा पर टिमटिम-सा भकभक करता दीया
छाँट रहा है आँगन का अँधियाला जैसे-तैसे
एक बूँद ही स्नेह बचा है थरथर है किस भय से
शीश रास का झुका हुआ है, कहीं पूत न धीया ।
अनसाता लाठी की ठकठक, और उदासी का रोना
नीतिवचन को तुलसी दल-सा मुँह में डाले रहना
कुल की परिपाटी को, कुछ हो, हरदम पाले रहना
जीवन का अभिशाप ? किसी औघड़ का जादू-टोना ?
खुद ही नहीं समझ पाता जो, तृण है या फिर वट है
गाँव से बाहर किसी देवता का ही थान अकेला
वर्षों पहले इसी जगह पर लगता था एक मेला
अब मशान में पीपल से लटका मिट्टी का घट है ।
यह तेरह के चारो धाम पर जल का घोर प्रलय है
शिव की गर्दन तक गंगा है, फिर तो सब कुछ लय है ।