भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अगहन की दामिनी / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:45, 23 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=साध...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जहाँ न्याय पर लाठी बरसे, वह शासन क्या शासन
अश्रु-गैस के गोले छूटे, पानी की बौछारें
लोकतंत्रा जब ऐसा खूनी, किसको कहाँ पुकारें
अगहन की जब जले दामिनी, जल जाए सिंहासन !
सिंहासन के सम्मुख नारी की है खींचा-तानी
यह तो काल महाभारत को आमंत्राण है देना
कोई शेष रहेगा कैसे, जिसकी भी हो सेना
समय लिखेगा यह भी कलि की ऐसी क्रूर कहानी !
दिल्ली, तुम किसकी हो, बोलो; सत्ता की, नारी की
बहू-बेटियाँ घर में भी क्यों ऐसी हैं भयभीत
कानों में शीशे-सा गलता सत्ता का संगीत
कहो राजपथ, तेरे घर में कैसी यह तारीकी !
न्यास माँगते बच्चे-युवती पर प्रहार हो स्वाहा !
लोकतंत्रा का गला दबोचे, वह सरकार हो स्वाहा !