भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पं. दामोदर शास्त्री / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:52, 23 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=साध...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तप-तप कर जो बना तपस्वी ज्ञान अनल का पूत
चन्दन का ज्यों वृक्ष खड़ा हो शाखाओं को खोले
यज्ञवेदी से उठा अनल हो मंत्रों को स्वयं बोले
कंचन का ही शैल बन गया हो हठात अवधूत।

कविता की गंगा को मुँह पर धरे जद्दु वह ऋषि था
ले कर उषा उठा था ऐसा, जग पूरा आलोकित
चण्डी के चरणों पर जिसका जीवन रहा समर्पित
शिव था, अपने जटाजूट पर चैथी का वह शशि था।

हँसता, तो छाता वसन्त था, घन-सा था गम्भीर
निर्मलता में शरत कहाँ टिक पाती, ऐसा नर था
बहता हुआ हमेशा गिरि से दुग्ध धवल निर्झर था
स्वर्णपात्रा में अमिय छलकता, अंग-गंग का नीर ।

जहाँ-जहाँ बैशाख-जेठ था, वहाँ-वहाँ सावन था
तिलक भाल पर चन्दन का था, भारत का वह मन था ।