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सुर को साधो / अमरेन्द्र
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गाओ कोकिल ! क्या होता है आया नहीं वसन्त
अमराई में बौरों की आहट भी कहीं न मिलती
छाया में भी जाग रही है ज्वाला-आग सुलगती
अब तो समय काल है दिखता; कल का योगी सन्त ।
क्या जाने कल मेघों की बारात कहीं थम जाए
किस आशा में हो चकोर, अब ही से शोर मचाओ
किसकी ऐसी कठिन प्रतीक्षा है ? जूही खिल जाओ
क्या भविष्य का ! वह संन्यासी, जहाँ रुका, रुक जाए ।
गाओ कोकिल पंचम स्वर में, जी भर अघा-अघा कर
तुम्हें नहीं मालूम, तुम्हीं से आना है मधुमास
जूही की उजली-रोमिल-सी मीठी-मीठी साँस
रख देती है गंधों को अम्बर में नचा-नचा कर ।
पंचवाण को साधो सुर से, क्या कन्दर्प करेगा
जूही हाथ मिला दे, तो फिर बादल भी बरसेगा ।