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जीवन / अमरेन्द्र

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घर से भागो निर्जन वन में, फिर घर में ही आओ
मरो हजारों बार और फिर अपनी चिता सजा कर
रुदन प्रेत का, मन्दिर के पीछे का, है पर्वत पर
रात-रात भर जाग-जाग कर बस मनौन को गाओ ।

कापालिक का खेल समाया चिमटे में, बेतों में
अग्निकुण्ड से बाहर निकलो और लगाओ गोता
इस सुरंग के भीतर बैठा कौन दे रहा न्यौता
राजमहल का ढूह उड़ा जाता है बस रेतों में ।

मणि का कुसुम करों में झरते मणिधर है बन जाता
उतर कण्ठ में अमृत भी होता है फेन गरल का
बैठा है तक्षक इस फल में, क्या होगा इस फल का
पता नहीं इस शून्य जगत को कैसे कौन चलाता !

तीरों की नोकों पर सोई मन की है अभिलाषा
भीष्म पितामह का जीवन है जीवन की परिभाषा ।