भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समय / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:08, 23 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=साध...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समय आग का कुण्ड; दहकती भू क्या, ऊपर नभ है
फटी हुई छाती पर्वत की, और नदी है रेत
अमराई के बीच पड़ी है कोयल गिरी अचेत
गंगा के भी नीचे साँसों का तपता सौरभ है ।

खेतों में चिनगारी की फसलें हैं पकी-पकी अब
जाने कब पछिया बह जाए चिनगारी को छू कर
गाँव, गाँव, खलिहान, मवेशी जल जाए धू-धू कर
सचमुच में क्या नहीं आयेगी पुरबा थकी-थकी, अब !

बिल्ली की आँखों-सी रातें, डरा हुआ चम्पा है
केशर के शर कुन्द पड़े हैं, क्या शिरीष कुछ बोले
इसका भी अवकाश नहीं है, पाटल मन को खोले
किसने क्या शबरी को कह दिया, व्याकुल यूं पम्पा है ।

रेतों का मटमैला बादल प्रेत बना उड़ता है
इस हलचल और कोलाहल में कैसी यह जड़ता है !