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विश्वास / अमरेन्द्र

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जैसी यह दिखती है दुनिया ऐसी कभी ना थी
साँसों के आने-जाने पर लगा हुआ है पहरा
देश-काल को देखा मैंने गुमसुम-गुमसुम हहरा
क्या जाने क्या और लिखा है, होगा और अभी ।

चाहे जितना जो कुछ हो ले, मुझे बदलना पथ है
सतयुग को इस कंधे पर ही तो लाना है ढो कर
नहीं रीतने दूंगा मैं यह जीवन यूं ही रो कर
निकलेगा ही, जैसे भी हो, धसा हुआ जो रथ है ।

जोर जहाँ भी चला मनुज का अम्बर तक डोला है
मरु में भी सागर लहराया, ठूंठों पर मधुमास
मृत्यु कहाँ फिर कर सकती है, जीवन का उपहास
अपने अन्तरतम का मैंने भेद कहाँ खोला है ।

इन तपती रेतों पर सावन दौड़ेगा ले बादल
एक बार तो बजे मृदंग पर खुल कर वंशी-मादल ।