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ध्रुवान्तर / अमरेन्द्र
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क्या देखा जो तुमने देखा दिल्ली की संसद को
बीस लाख की गाड़ी पर मंत्राी को हाथ हिलाते
उसके पीछे किसिम-किसिम की फौजों की भरमार
क्या देखा जो देखा शाही कोठी, शाही मद को ।
मैंने तो देखा है फगुआ को ही धूम मचाते
रंगों को गाते देखा है होरी और जोगीरा
मैंने खेतों को देखा है सर पर लिए फसल को
बौरों को देखा है कोयल-शुक को खूब नचाते ।
मैंने देखा है पर्वत पर घन को पाँव पसारे
और पकड़ते बगुलों को अपनी बाँहें फैला कर
तुहिन कणों को देखा है मोती को खूब चिढ़ाते
और खड़े सौ वर्षों से वट तक को देह उघारे।
क्या तुमने देखा है नदियों को भी झूमर गाते
हाय, गाँव में मेरे संग तुम कुछ दिन तो रह पाते।