भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दाह / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:40, 23 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=साध...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बरसो जेठ, मेघ ज्यों बरसे सावन-भादो माह
जितनी आग बिछाओगे तुम, उतनी धरती शीतल
जितना तुम गुर्राओगे, होगा हर्षित मन चीतल
हिम की नदी से कैसे कम है ग्रीष्म तुम्हारा दाह।
जेठ जले चाहे जितना भी जग की आग से कम है
जठरानल मंे दावानल-बढ़वानल झुलस गया है
जाने कैसा क्रूरकाल है, सब कुछ विरस गया है
इस मशान में रुदन भी नहीं, केवल ही छमछम है।
डर लगता है लोक-लोक में उठते हुए अनल से
नदियों की भी कोख आग में जली हुई दिखती है
कैसा होगा ग्रंथ जिसे यह क्रूर सदी लिखती है
धरती पर उठती यह ज्वाला निकली कौन अतल से ?
बरसो जेठ, तुम्हीं से होगी यह ज्वाला भी शांत
देख रहा हूँ पुरबा-पछिया दोनों ही हैं भ्रांत ।