भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आ गयी नीली नदी फिर / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:06, 23 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=दीपक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आ गयी नीली नदी फिर
देवता का मौन मंदिर ।
रात कैसी घोर काली
मन अघोरी, तन कपाली,
तमतमाया रूप लेकर
रात पर आसीन व्याली;
देह सिहरी, हुई रोमिल
बह रहा है, क्या हिमानिल,
मध्यनिशि का पथ विजन है
क्या सुनाता है अजामिल;
हाँक किसकी आ रही है,
हो गये मन-प्राण हैं थिर ।
यह हिमानी हाथ किसका,
शिशिर-सा ही साथ किसका,
बर्फ की काली नदी में
सो रहा यह प्रात किसका?
थरथराती नाव कम्पित,
केश छाया के खुले सित,
यमसुता के वक्ष पर हैं
प्राण मेरे आज बिम्बित।
झर रहे हैं रोम के वन,
गूंजता संगीत झिर-झिर ।