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लौट के आया गाँव-गाँव से / अमरेन्द्र

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लौट के आया गाँव-गाँव से,
कान पक गये काँव-काँव से।

पुरबारी का पछियारी ने
यार के यारों की यारी ने
दखनाहा ने उतराहा का
उमताहा ने छिमताहा का
इस टोला ने उस टोला का
पहलवान ने बमभोला का
क्या कर डाला क्या बतलाऊँ
दर्द नहीं है जो सहलाऊँ
धूप मिली है छाँव-छाँव से
लौट के आया गाँव-गाँव से।

पोखर सारे भते भताए
वैसे ही सब कुएँ दिखाए
नहर दिखी बहती नाली-सी
भरी चीज भी थी खाली-सी
नदी मिली बहती-सी ऐसे
रेत बहे खेतों में, जैसे
सूख गये थे ओठ कुआँ के
चिन्ह नहीं थे कहीं चुआँ के
नीचे जल था, ऊपर बालू
सूख रहे थे सबके तालू
आग उठी थी ठाँव-ठाँव से
लौट के आया गाँव-गाँव से।

घर मिट्टी के, घर पक्के के
सौ इक्के के, छः छक्के के
छक्के की छत पर दौलत थी इक्के के दुर्दिन थे, गत थी
ऐसे तो सब सटे-सटे थे
लेकिन काफी बँटे-बँटे थे
हाथ नहीं थे पर मशाल थे
शिव लगते, ज्यों रूद्र काल थे
सारे सुर थे घाँव-घाँव-से
लौट के आया गाँव-गाँव से।

डरे-डरे उत्सव के लम्हे
पर्व मिले सब सहमे-सहमे
कब फट जाए स्वयं का घाती
बस्ती लील जाए उतपाती
सबकी आँखें डरी-डरी-सी
भादो में ज्यों भरी-भरी-सी
बिखरा सब कुछ, बंध नहीं था
चैपाई तक छन्द नहीं था
नहीं पता इसका चल पाया
बीत गया कब, पर्व जो आया
दिन-दिन गुजरा फीका-फीका
माँ की चिन्ता में ज्यांे धी का
उकता आया झाँव-झाँव से
लौट के आया गाँव-गाँव से।

बँसबिट्टी का गाँव। क्या हुआ
हार गई क्यों पुरबा-पछुआ
दिन-दिन गुजरा, गुजरे माहें
वर्ष तलक ऋतुओं की आहें
कहीं नहीं जड़ थी, न फुनगी
बदहवास मौसम की जिनगी
जमे लोग थे, पिघली धरती
नागफनी पर बेसुध परती
रक्त रिसे थे पाँव-पाँव से
लौट के आया गाँव-गाँव से।

कौन फेरता इस पर फेरा
इसके सुख का कौन लुटेरा
छीन ले गया नींद रात की
और मिठास रसभरी बात की
रिश्ता विष का खेल बन गया
गाँव शहर का जेल बन गया
देवों पर दावा चलता है
अमृत में विषधर पलता है
दान-दया से सूना आँगन
ठुमरी क्या गा पाता माँगन
सोच रही थी रुपसावाली
सबकी कोठी खाली-खाली
कोठी के ही खाँव-खाँव से
लौट के आया गाँव-गाँव से।