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कौशल्या / ग्यारहमोॅ खण्ड / विद्या रानी

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अबे तेॅ महलोॅ के भोर विचित्र छै,
नै तेॅ वेद नै वन्दीजन घ्वनि सुनै छियै।
राम सिय तेॅ नहिये आवेॅ सकतै,
आशीर्वाद लै के बैठी रहलोॅ छियै।

देखी रामलखन केरोॅ धनुहिया,
छोटोॅ-छोटोॅ सुन्दर पग त्राण।
आँखि लगावै, हृदय सटावै,
याद करि देवी कानें लागै।

राम के रहवोॅ राम के खैयवोॅ,
खेलवोॅ, हँसवोॅ, बोलवोॅ बात।
याद आवै छै रहि रहि माता केॅ,
वाम विधाता नें करलकोॅ कुघात।

ऐन्हों परम सुख हे सखि,
कोय नै देखेॅ पारलकै।
छलनी-छलनी होलै हमरोॅ मन,
जीवन मं दुख धारलकै।

नै सोचनें छेलियै ऐन्हों होतै,
रामलखन सिय एत्तेॅ दुख पइतै।
कोमल वसन गात वाला संतान,
वल्कल पीन्ही घुमैं हे भगवान।

वनगमन सत्य छै या कि छल,
नै समझै छिये हम्में नै रहै छै कल।
रामलखन सीता सब हरदम,
आँखि तर नाचै धधकावै छै मन।

भवन आँगन भाँय भाँय करै छै,
अयोध्या के जीवन धन नै छै।
हुनकोॅ लाल लीला अद्भुत छै,
याद करी केॅ हिय फाटै छै।

कहियोॅ नै हम्में सौतिन बुझलियै ।
बहिन समान ओकरा राखलियै,
हरदम हम्में राम केॅ सिखावे छेलियै ।
कैकेयी छौ तोरोॅ माता, बतावै छेलियै,

पहिनें हुनका करौ परनाम ।
रामोॅ दै छेलै एकरा पर ध्यान,
वहूँ कहियो विमाता न समझलकै ।
आज्ञा पालन सदा करलकय,

उ कैकेयी केना बदली गेलै,
कोमल हृदय बज्जर बनी गेलै।
के ओकरोॅ बुद्धि केॅ नासलकै,
राजभवन के दुखो में धँसलकै।

सुमित्रा कौशल्या के धीरज दै छै,
विधि के विधान सहनै पड़ै छै ।
दीदी राजकुमारी तोहें छेलौ,
इहां आय के पटरानी बनलौं ।

ज्येष्ठ उत्तराधिकारी पुत्रा भी पैयलौ,
चारो तरफोॅ सें सुख पैयलौ ।
नै रहेॅ देलकौ बाप विधाता,
की करभै, करमों के लेखा ।

धरती पर रोशनी बरसाबै छे,
अमरित केरोॅ धार गिरावै छै ।
ओकरोॅ तेॅ राहू ग्रसिलै छै,
विधाता के की कहेॅ सकै छै ।

चैदह बरस बिताना छीकों,
हिरदय हारला सें केना होतौं ।
लछमन भी साथें गेलोॅ छै
उर्मिला नें दुख पैयले छै ।

जन्नै देखै छियै तन्नें दुख छै,
राम बिना केकरो नै सुख छै ।
तोहें तेॅ माता ही छीकौ,
एत्तेॅ दिन केना रहेॅ पारवौ ।

जरूरे हम्में चूक करनें छी,
ऊ जनमो के पाप भरनें छी।
जीवन भर संतापे सहनें छी,
रानियो बनी केॅ दुख पइनें छी ।

भरतोॅ के मुंह नै देखलोॅ जाय छै
माय बाप बिना सुखलोॅ जाय छै ।
एतना नियम धरम करी केॅ भी,
अयोध्या के बाहर रही रहलोॅ छै ।

राखि राम के चरण पादुका,
राज चलावै छै भरत बेटा ।
ओकरोॅ संताप के के जानै पारै,
भाय-भाय के परेम विचारै ।

हे सुमित्रा, कैकेयी के देखोॅ
ग्लानि सें ऊ भरली जाय छै,
ब्रह्माणी नें बुद्धि हरलकै,
की होलै ऊ दिन कहेॅ नै पारै छै ।

जेकरा लेॅ उत्पात करलकै
निज स्वार्थ लेॅ वर मांगलकै ।
ऊहो भरत नै बात मानलकै,
छोटोेॅ, नीचोॅ बात कहलकै ।

हिन्नें कुइयाँ हुन्नें खाई,
दुनु में फँसली कैकेयी भाई ।
करमोॅ के लेख कही समझावै छी,
ग्लानि ओकरोॅ नै मिटाय पारै छी ।

रुइया ढेरी में आग लगि गेलै,
सभै सुख भन्न सें जरी गेलै ।
दिन तेॅ वैन्हें जइबे करतै,
राम बिना फिनु के सुख पैतै ।

शत्राुघ्न अरू श्रुति कीर्ति,
देखि समय, भरि केॅ सुमति ।
सभ्भै काम करि रहलोॅ छै,
दीपक रंग जरि रहलोॅ छै ।

जेना सूरज के डुबला पर,
दीया न भार उठाय लै छै।
अंहार केॅ दूर करै लेॅ,
आपनोॅ लौ जराय लै छै ।

वैन्हें शत्राुघ्न छै बेटा,
राम बिना ऊहो दुखी छै ।
मौन रही केॅ सभै सहै छै,
श्रुतिकीर्ति कत्ता अन्र्तमुखी छै ।

हम्में तेॅ सभै देखै छियै,
काल नें केन्होॅ काम करलकै,
हलफलोॅ, हरियैलोॅ खेतोॅ में
भयंकर पाला गिराय देलकै ।

हमरोॅ परान तेॅ जैइबे नै करतै,
बज्जर बनि केॅ हम्में रहवै।
छुतहर हड़िया बनि गेलियै हम्में,
सिन्दूर तेॅ गेलै कोखो कानै छै ।

फूटि-फूटि कौशल्या रोवै
सभै हुनका पास चलि आवै।
धीरज धरि केॅ सभै केॅ देखौ,
मिली-जुली हुनका समझाबै।

यही रंग हुनकोॅ दिन जाय छेलै,
एक्के भाव विरह देखाय छेलै ।
चैदह बरसों के बाद अइतै,
केना करि केॅ एत्ता दिन जइतै ।