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हिरोशिमा / अज्ञेय

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एक दिन सहसा

सूरज निकला

अरे क्षितिज पर नहीं,

नगर के चौक:

धूप बरसी

पर अंतरिक्ष से नहीं,

फटी मिट्टी से।


छायाएँ मानव-जन की

दिशाहिन

सब ओर पड़ीं-वह सूरज

नहीं उगा था वह पूरब में, वह

बरसा सहसा

बीचों-बीच नगर के:

काल-सूर्य के रथ्‍ा के

पहियों के ज्‍यों अरे टूट कर

बिखर गए हों

दसों दिशा में।


कुछ क्षण का वह उदय-अस्‍त!

केवल एक प्रज्‍वलित क्षण की

दृष्‍य सोक लेने वाली एक दोपहरी।

फिर?

छायाएँ मानव-जन की

नहीं मिटी लंबी हो-हो कर:

मानव ही सब भाप हो गए।

छायाएँ तो अभी लिखी हैं

झुलसे हुए पत्‍थरों पर

उजरी सड़कों की गच पर।


मानव का रचा हुया सूरज

मानव को भाप बनाकर सोख गया।

पत्‍थर पर लिखी हुई यह

जली हुई छाया

मानव की साखी है।