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असद ज़ैदी के लिए / कांतिमोहन 'सोज़'

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(यह ग़ज़ल असद ज़ैदी के लिए)

कहूँ भी क्या अजब सा माजरा था।
हुआ बेुख़ुद तो ख़ुद को पा रहा था॥

भरी दुनिया में तनहा हो गया था
मैं ख़ुद सुनता था मैं ही बोलता था।

मैं सारी धड़कनों को गिन रहा था
कोई पत्ता कहीं पर काँपता था।

वो जल काला था गहरा भी बहुत था
मैं हर डुबकी पे निखरा जा रहा था।

वहाँ पर कौन था मेरे अलावा
मैं खुद मंज़र था मैं ही देखता था।

कमां थी और न तीरन्दाज़ कोई
फ़क़त एक तीर था जो बेख़ता था।

जमाले-ज़ीस्त बासी हो चुका था
वगर्ना सोज़ बेहद मनचला था॥

22.03.2017