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अरुण प्रकाश मिश्र के लिए / कांतिमोहन 'सोज़'

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(यह ग़ज़ल अरुण प्रकाश मिश्र के लिए)'

दुआ सलाम हुए भी अब एक ज़माना हुआ।
अगरचे बारहा<ref>कई बार</ref> उसकी गली में जाना हुआ॥

जो अपना बोझ उठाते हुए भी डरता था
तुम्हारे फैज़ से कान्धे पे उसका ख़ाना<ref>घर</ref> हुआ।

चले जो यार तो मुड़कर कभी नहीं देखा
ये एक काम तो हमसे भी आशिक़ाना हुआ।

करम के बोझ से पथराके रह गया था मैं
सितम के दम से रगों में लहू रवाना हुआ।

अजीब बात है कोई यक़ीं नहीं करता
सलूक उसका मेरे साथ दोस्ताना हुआ।

हँसी उडाना तो आसाँ है दोस्तो लेकिन
हज़ार हादिसे<ref>घटनाएँ</ref> गुज़रे तो एक फ़साना हुआ।

दियारे-ग़ैर<ref>पराई नगरी</ref> में किसकी तलाश है तुमको
ग़रीब सोज़ को गुज़रे तो एक ज़माना हुआ॥

2002-2017