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मुबीन ख़ान के नाम / कांतिमोहन 'सोज़'

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(यह ग़ज़ल मुबीन ख़ान के नाम)

दीवाना कहके कोई मुझे छेड़ता नहीं।
बस्ती में मुद्दतों से तमाशा हुआ नहीं॥

कल ज़िन्दगी मिली तो बहुत शर्मसार थी
जग में किसी ने उस पे भरोसा किया नहीं।

मैंने वफ़ा जो की तो निभाए चला गया
कैसे कहूँ कि प्यार में मेरी ख़ता नहीं।

चाहें तो आप भी इसे दीवानगी कहें
मंज़िल पुकारती रही पर मैं रुका नहीं।

दीखे नहीं ज़रूर थे दामन में मेरे दाग़
आख़िर मैं आदमी था कोई देवता नहीं।

हँसता था बोलता था कभी चीख़ता भी था
बस मैं तेरे बग़ैर कभी जी सका नहीं।

हैराँ था चारागर भी पशेमाँ था सोज़ भी
हर तीर उसके दिल में था तीरे-वफ़ा नहीं।

2002-2017