भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिल-ए-मजबूर तू मुझ को किसी ऐसी जगह ले चल / राजेंद्र नाथ 'रहबर'

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:40, 14 अप्रैल 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेंद्र नाथ 'रहबर' |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिल-ए-मजबूर तू मुझ को किसी ऐसी जगह ले चल
जहाँ महबूब महबूबा से आज़ादाना मिलता हो
किसी का नर्म-ओ-नाज़ुक हाथ अपने हाथ में ले कर
निकल सकता हो बे-खटके कोई सैर-ए-गुलिस्ताँ को
निगाहों के जहाँ पहरे न हों दिल के धड़कने पर
जहाँ छीनी न जाती हो ख़ुशी अहल-ए-मोहब्बत की
जहाँ अरमाँ भरे दिल ख़ून के आँसू न रोते हों
जहाँ रौंदी न जाती हो ख़ुशी अहल-ए-मोहब्बत की
जहाँ जज़्बात अहल-ए-दिल के ठुकराए न जाते हों
जहाँ बाग़ी न कहता हो कोई ख़ुद्दार इंसाँ को
जहाँ बरसाए जाते हों न कूड़े ज़ेहन-ए-इंसाँ पर
ख़यालों को जहाँ ज़ंजीर पहनाई न जाती हो
कहाँ तक ऐ दिल-ए-नादाँ क़याम ऐसे गुलिस्ताँ में
जहाँ बहता हो ख़ून-ए-गर्म-ए-इंसाँ शाह-राहों पर
दरिंदों की जहाँ चाँदी हो ज़ालिम दनदनाते हों
झपट पड़ते हों शाहीं जिस जगह कमज़ोर चिड़ियों पर
दिल-ए-मजबूर तू मुझ को किसी ऐसी जगह ले चल
जहाँ महबूब महबूबा से आज़ादाना मिलता हो