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भुजरियें / नीलेश रघुवंशी

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माँ

नौ दिन देती है पानी

मिट्टी से भरे दोनों में

उगती है धीरे-धीरे इच्छाओं की तरह

एक-एक कर अनगिनत भुजरियें

एक-दूसरे पर बोझा डालतीं

झुकती हैं एक-दूसरे पर

माँ का दिया पानी चमकता है

बूंद-बूंद मोती की शक्ल में

रोती है माँ

मिट्टी से भरे दोनों में उगी भुजरियों को

करती है विदा भाई की साईकिल।

रोता है भाई

रोते हैं हम सब साथ भुजरियों के

ससुराल में बैठी बहनों को याद करके।