भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपने करीब और जरा और ला मुझे / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:58, 18 अप्रैल 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=द्वार...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपने करीब और जरा और ला मुझे
कुछ और उम्र के लिए पागल बना मुझे

हालत अजीब हो गई थी उस घड़ी में तब
जब खुद भी रोने लग गये थे वो रुला मुझे

पहलू में अपने ढूंढता हूँ अपना कलेजा
करना है एक जुल्म का फिर सामना मुझे

मैं सो रहा आकाश के कौफिन में था मगन
कन्धा दिया था पर्वतों ने यूँ लगा मुझे

वह आ रही थी मौत मेरी बाँहें उठाए
समझा कि जिन्दगी ही है धोखा हुआ मुझे

मुन्सफ की मुन्सफी भी जमाने में देख ली
उसने किया था जुर्म, मिली है सजा मुझे

मैंने दिलों की देखी हैं गहराइयां 'अमरेन्द्र'
प्याला तू मैकदे का न सागर दिखा मुझे।