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कुछ और शेर / शमशेर बहादुर सिंह
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(जो एक शादी के मौक़े पर कहे गए)
गुलशन से जो इतराती आंगन में बहार आई
ख़ुशज़ौक़ दुल्हन उसकी शोख़ी को सँवार आई।
यह कौन निगार आया, फिर बाँगे-हज़ार आई
कलियों पे निखार आया, फूलों पे बहार आई।
फिर शोरे-अनादिल है, फिर गुंचे परीशाँ हैं :
ए बादे-सबा, लेकर क्या नामए-यार आई?
हर एक शगूफ़ा यह कहता हुआ खिलता है।
"शायद कि बहार आई! शायद कि बहार आई!"
(1945 में रचित)