भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
झर गये पात / बालकवि बैरागी
Kavita Kosh से
Saurabh2k1 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 14:38, 2 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बालकवि बैरागी }} <br /><br /> झर गये पात बिसर गई टहनी करुण क...)
झर गये पात
बिसर गई टहनी करुण कथा जग से क्या कहनी ?
नव कोंपल के आते-आते टूट गये सब के सब नाते राम करे इस नव पल्लव को पड़े नहीं यह पीड़ा सहनी
झर गये पात बिसर गई टहनी करुण कथा जग से क्या कहनी ?
कहीं रंग है, कहीं राग है कहीं चंग है, कहीं फ़ाग है और धूसरित पात नाथ को टुक-टुक देखे शाख विरहनी
झर गये पात बिसर गई टहनी करुण कथा जग से क्या कहनी ?
पवन पाश में पड़े पात ये
जनम-मरण में रहे साथ ये "वृन्दावन" की श्लथ बाहों में समा गई ऋतु की "मृगनयनी"
झर गये पात बिसर गई टहनी करुण कथा जग से क्या कहनी ?