भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं / रामचरन गुप्त
Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:02, 21 मई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामचरन गुप्त |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> ऐ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ऐरे चवन्नी भी जब नाय अपने पास,
पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं?
किससे किस्से कहूं कहौ मैं
अपनी किस्मत फूटी के
गाजर खाय-खाय दिन काटे
भये न दर्शन रोटी के
एरे बिना किताबन के कैसे हो छटवीं पास,
पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं?
पढि़-लिखि कें बेटा बन जावै
बाबू बहुरें दिन काले
लोहौ कबहू पीटवौ छूटै,
मिटैं हथेली के छाले
एरे काऊ तरियां ते बुझे जिय मन की प्यास,
पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं?
रामचरन करि खेत-मजूरी
ताले कूटत दिन बीते
घोर गरीबी और अभावों
में अपने पल-छिन बीते
एरे जा महंगाई ने अधरन को लूटौ हास,
पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं?