भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शून्यमा शून्य सरी / लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा

Kavita Kosh से
Sirjanbindu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:59, 21 मई 2017 का अवतरण (Sirjanbindu ने सून्यमा सून्य सरी / लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा पृष्ठ [[शून्यमा शून्य सरी / लक्ष्मीप्रसाद देव...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

संसार रुपी सुख स्वर्गभित्र,
रमें रमाएँ लिइ भित्र चित्र।
सारा भयो त्यो मरुभूमि तुल्य,
रातै परे झैं अब बुझ्छु बल्ल।
 
रहेछ संसार निशा समान,
आएन ज्यूँदै रहँदा नि ज्ञान।
आखिर रहेछ श्रीकृष्ण एक,
न भक्ति भो, ज्ञान, नभो विवेक।
 
महामरुमा कण झैं म तातो,
जलेर मर्दो बिन आश लाटो।
सुकी रहेको तरु झैं छु खाली,
चिताग्नि तापी जल डाल्न फाली।

संस्कार आफ्नो सब नै गुमाएँ,
म शून्यमा शून्य सरी बिलाएँ।
जन्मेँ म यो स्वर्गविषे पलाएँ,
आखीर भै खाक त्यसै बिलाएँ।