एक बदसूरत कविता / भूपिन / चन्द्र गुरुङ
अकेली कब तक
सुंदर बनी बैठी रहेगी कविता।
अकेली कब तब
सौन्दर्य की एक तरफा प्रेमिका बनी रहेगी कविता।
आज उसको
बदसूरत बनाने का मन हो रहा है।
सबसे भद्दी राज्यसत्ता में भी
सबसे सुन्दर दिखाई देती है कविता।
सबसे घिनौने
हिंसा के समुद्र में नहाकर
सबसे साफ निकल आती हो कविता।
आज उसको
बदसूरत बनाने का मन हो रहा है।
आओ प्रिय कवियों
इस बार कविता को
सुंदरता की गुलामी से मुक्त करते हैं
कला के अनन्त बँधन से मुक्त करते हैं
और देखते हैं
कविता की बत्ती बुझने के बाद
और कितना अँधेरा दिखता है दुनियाँ में
और कितना खाली है खालीपन।
क्या फर्क है
मन्दिर और वेश्यालय की नग्नता में?
क्या फर्क है
संसद भवन और श्मशानघाट की दुर्गन्ध में?
क्या फर्क है
न्यायालय और कसाईखाने की क्रूरता में?
इनकी दिवार के उस पार
सबसे ईमानदार बनकर खडी रहती है कविता।
आओ प्रिय कवियों
आज ही कविता की मृत्यु की घोषणा करते हैं
और देखते हैं
और कितनी जीवंत दीखती है
कविता की लाश पर जन्मी कविताएँ।
देखते हैं
कविता की मौत पर खुशी से
किस हद तक पागल बनती है बन्दूक
कितनी दूर तक सुनाई देता है सत्ता का अट्टहास
और कितनी उदास दिखती है कलाका चेहरा।
सुन्दर कविताएँ लिखने के लिए तो
सुन्दर समय बाँकी है ही
आज क्यों लिखने का मन कर रहा है
समय की आखिरी लहर तक न लिखी गई
सबसे बदसूरत कविता?
जैसे बन्दूक लिखती है
हिँसा की बदसूरत कविता शहीद की छाती पर
अकेली कब तक
बदसूरत बनी बैठी रहेगी कविता?