भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पानी उछाल के / नईम
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:40, 4 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम }} आओ हम पतवार फेंककर<br> कुछ दिन हो लें नदी-ताल के।<br><br...)
आओ हम पतवार फेंककर
कुछ दिन हो लें नदी-ताल के।
नाव किनारे के खजूर से
बाँध बटोरं शंख-सीपियाँ
खुली हवा-पानी से सीखें
शर्म-हया की नई रीतियाँ
बाँचें प्रकृति पुरुष की भाषा
साथ-साथ पानी उछाल के।
लिख डालें फिर नये सिरे से
रँगे हुए पन्नों को धोकर
निजी दायरों से बाहर हो
रागहीन रागों में खोकर
आमंत्रण स्वीकारें उठकर
धूप-छाँव सी हरी डाल के।
नमस्कार पक्के घाटों को
नमस्कार तट के वृक्षों को
हो न सकें यदि लगातार
तब जी लें सुख हम अंतराल के।