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भाषू के लिए / मोहन कुमार डहेरिया

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भाषू1 के लिए

बहुत छोटी है मेरी बेटी
उससे छोटी उसकी दुनिया
हाथ भर लम्बी होगी जिद
पानी के बुलबुले जैसा संताप

शिष्टाचार से जर्जर नहीं हुई उसकी भाषा
उठता स्वप्नों गाढ़ा झाग
सूत जितनी जगह घेरती अभी महत्वाकांक्षाएँ
प्रसन्नता का मतलब उसके लिए मात्र मुट्ठी भर चाकलेट
या डुगडुगी की धुन पर मटक-मटककर ससुराल जाता बंदर

पिछले दिनों हुआ ऐसा फेरबदल
हथेलियों पर शतरंज की बिसात-सी फैला ली गई धरती
मोहरे की तरह प्रकृति का इस्तेमाल बढ़ता ही जाता सन्नाटा
मैं नहीं जानता ऐसे माहौल में भी
कपड़े के भालू से, गुड़िया से, जोकर से
दिन-दिनभर बतियाती क्या-क्या

पुकारती जब बारीक आवाज़ में मुझे
कसमसा उठता अंदर जैसे जल का सोता
लिए आशीष की मोटी धार

गर नहीं माना जाए इसे
गहरे सम्मोहन में फँसे एक पिता का मुगालता तो पूछना चाहूँगा
विदेश यात्रा पर निकला प्रधानमंत्री हो
या दाना चुगने दूरस्थ गए परिन्दे
सुनिश्चित नहीं रही जब किसी की वापसी
क्या वह नन्हा विश्वास ही है
कुटिलताओं के सारे अरण्यों को भेदता
लौट-लौट आता मैं फिर घर में

1.भाषू-- कवि की बेटी