भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इक्कीसवीं सदी / मनोज देपावत

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:45, 14 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज देपावत |अनुवादक= |संग्रह=थार-...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज भी देखूं हूं जद
घायल जमीं रा छाला
चीत्कार करती मायड़भोम,
लुटती अबलावां
कूख में मिटती कन्यावां
बळती बीनण्यां,
भूख हूं दोलड़ी ज्योड़ा टाबर
सियाळां में कांपती सड़कां किनारां सुत्ती आबादी
भिखारयां री फौज
धोळा-दोफारयां डकैत्यां
देष ने जीमता नेता
भ्रष्टाचार रो तांडव
नपंुसक परसारण
नसे री मिरग-तिरसणा
किलबिल करती जनता
दिसाहीण मोट्यार करजै में डूब्योड़ो अन्नदाता
भटकतो भविख
धरम, मजहब रै नाम माथै खिंडतो खून
घमंड दूसरै नै जीवण देण रो
बलि चढ़ता अबोला जीव
कटता रूंख
परळै रो रूप प्रदूसण
पग-पग मौत
काळजो तोड़ता नरसंघार
आतंकवाद रा पंजा सूं चिथिज्योड़ी
मिनखा जात
कांपतो ब्रह्माण्ड
जद सोचूं हूं
कांई आपां लायक हां ?
इक्कींसवीं सदी रै।