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चाहतें / आनंद कुमार द्विवेदी
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(१)
चाहते हैं कि
थमने का नाम नहीं ले रही
जिंदगी है कि
छदाम देने को राजी नहीं
दिल है कि
जान लेकर ही मानेगा
तुम हो कि
कोई फर्क ही नहीं पड़ता
(२)
ना जाने... कितना बड़ा होता है
एक आदमी,
खाक़ नहीं होता
वर्षों जलने के बाद भी,
रक्तबीज की तरह
जिन्दा हो उठता है
अपनी ही
किसी चाहत से फिर
(३)
कुछ न चाहना भी
एक चाहत है
तुम्हारी नज़रों में
थोड़ा और भला बनने के लिए
मिटने की चाहत भी
एक चाहत है
हमेशा बने रहने की
(४)
आ जाओ मृत्यु
सौंप दूं तुम्हें, अपनी
हर चाहत
कि जिंदगी को
इनमे से, एक भी
स्वीकार्य नहीं
और ना ही स्वीकार है मुझे
इनमें कोई संसोधन
(५)
कुछ चाहतें
चाहतें नहीं होती
दरअसल
वो जीवन होती हैं
मुझे भी पहले
ये बात पता नहीं थी