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निस्बत / आलोक श्रीवास्तव-१

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दिल को

कुछ चेहरों से

ऎसी निस्बत हो जाती है

जब भी आँखें मूंदो

वो ही शक्ल नज़र आती है

कोई कहीं इक बार मिला था लेकिन

ज़हनो-दिल के बीच

अभी भी!

उजली-उजली-सी एक मूरत

चलते-फिरते मिल जाती है

नाम-पता पूछो

तो

पाकीज़ा आँखों से कहती है--

निस्बत ।