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सुनो स्त्रियों ! / आनंद कुमार द्विवेदी

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सुनो स्त्रियों !
मैं तुमको
किसी एक दिन तक नहीं समेटना चाहता
कि तुम तो हो निस्सीम
उतना... जितना स्वयं हो सकता है परमात्मा
जिसने रचा है हमको तुमको बिना भेद किये
बिना कोई विशेष दिन निर्धारित किये
तुम न कोई उपलब्धि हो
न कोई त्रासदी,
तुम बस तुम हो...
जैसे मैं हूँ,
जैसे है दिन-रात, नदियाँ, आकाश, पहाड़ और पेड़
जैसे है यह दुनिया और इसमें वो बहुत सारी चीज़े
जिनके बारे मे मैं जरा भी नहीं जानता
मैं देखना चाहता हूँ तुम्हारे होने को
एक प्रकृति की तरह
मैं जीना चाहता हूँ तुम्हारे साथ को
एक साथी की तरह
बिना तुम्हें महिमामंडित किये
बिना तुम्हारी सहजता को खतरा पैदा किये।

मैं चाहता हूँ तुम देखो
इस महिमामंडन के पीछे का सच,
देखो !
ये वही लोग हैं
जो तुम्हारे हिस्से के निर्णय भी स्वयं लेते हैं
तुम्हें महान बताकर
खुद महान बन जाते हैं
फिर ...एक दिन
ये ही निर्धारित करते हैं तुम्हारे लिये अच्छा और बुरा ।