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एक आत्ममुग्ध व्यक्ति की कविता / अनिल गंगल

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वह नाच रहा है पंख फैलाए मुण्डेर पर
वह निरख रहा है सारंग-नील पंखों और
पूँछ पर बने चन्दोवों की छटा
वह देख रहा है भौहें तिरछी कर सर पर तनी कलगी
बादलों की ओर मुँह कर
वह लगा रहा है सुमधुर कण्ठ से बरखा की गुहार
वह देख रहा है अपनी आँखों की चमक को
किसी दूसरे की निगाहों से
और डूब रहा है उनकी अथाह गहराई में आकण्ठ
टूटी मुण्डेर पर बैठा वह
गर्दन उचका-उचका कर देख रहा है सर्वत्र
कौन छू सका इतनी ऊँचाई आज तक उसके सिवा
उसके क़द के आगे बौने दिखाई देते हैं यहाँ सारे क़द्दावर
कहाँ है ऐसी सुन्दरता तीनों भुवन में
आत्मरति में डूबा अपनी सुन्दरता के सम्मोहन में
रहता है वह हरदम मूर्छित
नहीं जाता उसका ध्यान एक बार भी
अपने भद्दे बदसूरत पंजों की ओर
जिनसे थामे हुए है फ़िलहाल वह
टूटी भरभराती मुण्डेर।