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फागुन रोॅ दिन चार / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
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प्रेम पुश्प ई तोरे लेली
मन सें दै छीं उपहार,
प्रीत, याद में राखिहोॅ ऐकरा
होय छै फागुन रोॅ दिन चार।
बहुते छोटोॅ छै जिनगी रोॅ ई नाव
मिलवां नै मिलै छै, ई नद्दी रोॅ थाव,
अपनें नै छै कोनोॅ ठिकाना
चाहौं, तोरा साथें उतरौं पार।
केकरा साथें कहाँ डूबल्हेॅ
ऊ सुख छुवन कहाँ सें पैल्हे ,ॅ
ई दुख विरहा केकरा कहियै
सच्चे, ई जीवन के व्यापार।
भूली, छोड़ी केॅ हमरा गेलोॅ छोॅ
उलटे छलिया हमरा बोलै छोॅ,
हम्मीं सच में नै समझेॅ सकलौं
दुखोॅ में बीतलै सब त्यौहार।
होय छै फागुन रोॅ दिन चार।