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माय / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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चुल्हा के आगिन पर बैठली
आगिन बनी केॅ
दहकी रहलोॅ छै माय
माय केॅ जलै सें बचावोॅ
कानी-कपसी रहलोॅ छै माय ।

ठंडा, बरफ सें भरलोॅ रातोॅ में
भींजला कपड़ा पर सुती-सुती केॅ
जे तोरे गू-मूत सें भीजै छेलै
माय नें पाली-पोसी केॅ बड़ोॅ करलकै
लाठी बनोॅ उनकोॅ
कानी रहलोॅ छौं माय, कलपी रहलोॅ छौं माय।
तोंय कैन्हें माय केॅ
प्रेमचंद के ‘बूढ़ी काकी’ बनाय देनें छोॅ
जूट्ठोॅ पŸाल चाटी रहलोॅ छौं माय
भूखला आँखी के लोरोॅ के पोंछी केॅ
टुकुर-टुकुर तोरे तरफें ताकी रहलोॅ छौं माय।

धरती रोॅ धीरज छेकै माय
सरंगोॅ के विस्तार, समुंदर के गंभीरता
क्षितिज रोॅ विनम्रता, चाँद के शीतलता
कहाँ-कहाँ नै छै माय
की-की नै छेकै माय
हवा रोॅ परान बनी केॅ, ओकरा पोरे-पोर मेंदृदृ
संगीत रोॅ लय बनी केॅ बजतें रहै छै माय
सीता, शकुंतला छेकै माय
माय केॅ मरै सें बचावोॅ