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ढाबा : आठ कविताएँ-7 / नीलेश रघुवंशी

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वह वक़्त-बेवक़्त की बारिश

भीगते हुए सेंकी जिसमें हमने रोटियाँ

ग्राहक की जगह को पानी से बचाते भीग जाते थे हम पूरे के पूरे

भीगते हुए देखती माँ

खड़ी रहती दरवाज़े पर सूखे कपड़े लिए

हमारे गीले सिरों पर हाथ फेरते हुए

मन ही मन बुदबुदाती

आएगी अगली बारिश में सबके लिए बरसाती।