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ढाबा : आठ कविताएँ-8 / नीलेश रघुवंशी

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ढाबे पर

झाड़ू लगाते बर्तन मांजते-मांजते हुआ प्रेम।


वह आकर खड़ा हो जाता

सामने वाली पान की गुमटी पर

रोटी बनाते-बनाते मैं देखती उसकी ओर

तवे पर जलती रोटी करती इशारा

'आना शाम को'


दोपहर को भगाती आती थी शाम

निकलने को ही होती ढाबे से

आ जाता कोई ग्राहक

हम हँसते रहते देर तक फिर मिलने का वायदा करते हुए।


उसी हँसी को ढूंढती हूँ आज भी

जब भी कभी दिखता है कोई ढाबा

हँसी में डूबी शाम आ जाती है याद।