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ढाबा : आठ कविताएँ-5 / नीलेश रघुवंशी
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कभी हो नहीं पाया ऎसा
परिवार के सारे सदस्य बैठे हों एक साथ
कोई एक हमेशा छूट जाता था ढाबे पर
उसके न होने को हम उसका होना करते
हँसी हँसते उसकी
फिर भी
वह अपने न होने का अहसास कराता बार-बार।
सारा जीवन खटते रहे पिता ढाबे में
करते रहे हमारी इच्छाएँ पूरी
ख़ुद की इच्छाओं से रहे बेख़बर।
ओ मेरे पिता
क्या तुम कभी नहीं टहल पाओगे
माँ के साथ सड़कों पर
कभी नहीं पढ़ पाओगे क्या
आरामकुर्सी पर बैठ कर अख़बार।