भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुकरी-3 / कैलाश झा ‘किंकर’
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:57, 25 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कैलाश झा ‘किंकर’ |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
भोजन कुछ नै हवा पीयै छै
तैय्यो खूब मगन जीयै छै
घर-घर जानै जेक्कर टायटिल
की सखि विषधर ?
नै सखि साइकिल।
पिछलग्गू लागै छै हरदम
मालिक लागै ओक्कर हमदम
जान गमाबै मेॅ अलबत्ता
की सखि बन्दर ?
नै सखि कुत्ता।
कखनो हँस्सै कखनो कानै
ओकरोॅ पीर नै दुनिया जानै
लागै दर्दे-दिल अफसाना
की सखि पागल ?
नै दीवाना।
बड़को-बड़को केॅ भरमाबै
छोटका केॅ तेॅ भीख मँगाबै
जेकरोॅ कारण जग बहुरूपिया
की सखि कुर्सी ?
नै सखि रुपया।