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कविता : अेक / विजय सिंह नाहटा

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अनघड़ भाठो हूं रूपहीण
साकार नीं म्हां में म्हारो ई अणंत
इक धार-इक रस
लयबंधी
छिणी री अचाणचक मार
दीठ में ल्यावै अंग पड़अंग
तरास परो अणसैंधो कलाकार
कठै किण दिठाव सूं पाछा होवो आप साकार।