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कविता : तीन / विजय सिंह नाहटा

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इण नै टाळ कीं नीं है
फगत एक सुपनो है
म्हारी तिरसी आंख्यां तिरतो
अर दूर ताईं
दीठमान गेलो म्हारो
सगळा च्यानणां हो जावै जद अदीठ
जद बुझ जावै रात रा सगळा नखत
फेर पाछो उणीज सुपनै नै खिलणो है
बा ई पाछी सरूआत है
जियां हर मुळक में सैंचनण है बो ई
जरूरी
दुनियां नै और फूटरी बणावण सारू
सावनिबळाई सूं अळगो रैय
अर मिटणमतै सूं ऊपर उठ
फगत अंवेरया राखणो
एक तयसुदा सुपनो।