भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन रो कबूतरो / कुंजन आचार्य

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:02, 27 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुंजन आचार्य |अनुवादक= |संग्रह=था...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

थोड़ो गीत, थोड़ी कविता
थोड़ी मन री आसा में।
मारां मन री हंगळी बातां
लिक्खी में हर भासा में।

सपना में है आखर पोथी
लैण-लैण में हेत भणूं।
हिचकी चालै रात-रात भर
हेत लिखूं अर हेत भणूं।

हां मूं बोलूं, वा मूं बोलूं
मन री भासा भण जाऊं।
हां चालूं हूं, हां रपटूं हूं
मंगरा डूंगर चढ़ जाऊं।

थारां हेत रा सपना देख्या
सपना रो ही चबूतरो।
हेत मले तो सच हो जासी
मन में नाचै कबूतरो।