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मंह मंह बेल कचेलियाँ / नामवर सिंह
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मंह-मंह बेल कचेलियाँ, माधव मास
सुरभि-सुरभि से सुलग रही हर साँस
लुनित सिवान, संझाती, कुसुम उजास
ससि-पाण्डुर क्षिति में घुलता आकास
फ़ैलाए कर ज्यों वह तरु निष्पात
फैलाए बाहें ज्यों सरिता वात
फैल रहा यह मन जैसे अज्ञात
फैल रहे प्रिय, दिशि-दिशि लघु-लघु हाथ!