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दुख-१ / दुष्यन्त जोशी

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आपां
अेक बात माथै
जद बार-बार
नीं हांस सकां
तद
अेक ई
दुख माथै
बार-बार
रोवां क्‍यूं हां

लागै
आपां जाण बूझ'र
दुखी हां।